भारत नहीं, कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई जाती है डॉ. भीमराव आम्बेडकर की आत्मकथा
आम्बेडकर की आत्मकथा के बारे में जानिए जो उन्होंने 1935-36 में लिखी. यह कोलंबिया विश्विद्यालय में पढ़ाई जाती है और उसके बारे में भारत में काफी कम चर्चा हुई.संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन और भारत के पहले कानून मंत्री डॉ. बीआर आम्बेडकर की बहुत सारी किताबें आज भी भारत में उपेक्षा का शिकार हैं, भले ही विश्वभर में उन किताबों की ख्याति महान और जरूरी किताब के रूप में हो. ऐसी ही एक किताब उनकी आत्मकथा है. इसको उन्होंने ‘वेटिंग फॉर वीजा’ नाम से लिखा था.
यह वसंत मून द्वारा संपादित ‘डॉ. बाबासाहब आम्बेडकर : राटिंग्स एंड स्पीचेज’, वाल्यूम-12 में संग्रहित है. जिसे महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग ने 1993 में प्रकाशित किया. इसे पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी ने पुस्तिका के रूप में 19 मार्च 1990 में प्रकाशित किया. इसे डॉ. आम्बेडकर ने 1935 या 1936 में लिखा था. कोलंबिया विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में इसे शामिल करने के लिए और कक्षा में पढ़ाने के लिए बेहतर बनाने के उद्देश्य से प्रोफेसर फ्रांसिस वी. प्रिटचेट ने इसे भाषाई स्तर पर संपादित किया.
यह आत्मकथा छह हिस्सों में विभाजित है. पहले हिस्से में डॉ. आंबेडकर ने अपने बचपन की एक यात्रा का वर्णन किया. कैसे यह यात्रा अपमान की भयावह यात्रा बन गई थी. दूसरे हिस्से में उन्होंने विदेश से अध्ययन करके लौटने के बाद बड़ौदा नौकरी करने जाने और ठहरने की कोई जगह न मिलने की अपमानजनक पीड़ा का वर्णन किया है. तीसरे हिस्से में दलितों के गांवों में उत्पीड़न की घटनाओं को जानने के लिए जाने के भयावह घटनाक्रम को रखा है. चौथे हिस्से में दौलताबाद का किला देखने जाने और सार्वजनिक टैंक में पानी पीने के बाद के अपमान का वर्णन किया है. चौथे और पांचवें हिस्से में उन्होंने दलित समाज के अन्य लोगों की अपमानजनक कहानी पर केंद्रित किया है. चौथे हिस्से में उन्होंने यह बताया है कि सवर्ण डॉक्टर द्वारा एक दलित महिला का इलाज करने के इंकार कर देने पर कैसे उसकी मौत हो जाती है. पांचवें हिस्से में उन्होंने एक दलित कर्मचारी के जातिगत उत्पीड़न का वर्णन किया है. उसका उत्पीड़न इस कदर होता है कि वह सरकारी नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर हो जाता है.
यह आत्मकथा मूलत: विदेशी लोगों के लिए विशेष तौर पर लिखी गई है, जो यह समझ ही नहीं पाते कि छूआछूत किस बला का नाम है और इसका परिणाम क्या होता है? डॉ. आंबेडकर ने आत्मकथा की शुरुआत में ही लिखा है कि ‘विदेश में लोगों को छुआछूत के बारे में पता तो है लेकिन वास्तविक जीवन में इससे साबका न पड़ने के कारण, वे यह नहीं जान सकते कि दरअसल यह प्रथा कितनी दमनकारी है. उनके लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि बड़ी संख्या में हिंदुओं के गांव के एक किनारे कुछ अछूत रहते हैं, हर रोज गांव का मैला उठाते हैं, हिंदुओं के दरवाजे पर भोजन की भीख मांगते हैं, हिंदू बनिया की दुकान से मसाले और तेल खरीदते वक्त कुछ दूरी पर खड़े होते हैं, गांव को हर मायने में अपना मानते हैं और फिर भी गांव के किसी सामान को कभी छूते नहीं या उसे अपनी परछाईं से भी दूर रखते हैं.’
‘अछूतों के प्रति ऊंची जाति के हिंदुओं के व्यवहार को बताने का बेहतर तरीका क्या हो सकता है? इसके दो तरीके हो सकते हैं. पहला, सामान्य जानकारी दी जाए या फिर दूसरा, अछूतों के साथ व्यवहार के कुछ मामलों का वर्णन किया जाए. मुझे लगा कि दूसरा तरीका ही ज्यादा कारगर होगा. इन उदाहरणों में कुछ मेरे अपने अनुभव हैं तो कुछ दूसरों के अनुभव. मैं अपने साथ हुई घटनाओं के जिक्र से शुरुआत करता हूँ.’
सबसे पहले डॉ. आम्बेडकर अपने जीवन की छुआछूत से जुड़ी तीन घटनाएं बताते हैं. इस प्रक्रिया में अपने परिवार के इतिहास का भी बयान करते हैं. पहली घटना वह 1901 की बताते हैं, जब उनकी उम्र करीब 10 वर्ष की थी. जब वे अपने भाई और बहन के बेटे के साथ सातारा से अपने पिता से मिलने कोरेगांव की यात्रा पर जाते हैं. अछूत समुदाय के होने के चलते इन बच्चों पर पूरी यात्रा के दौरान दुख और अपमान का कैसा कहर टूटता है, इसका वर्णन उन्होंने अपनी इस आत्मकथा में किया है. इसे उन्होंने ‘बचपन में दुःस्वप्न बनी कोरेगांव की यात्रा’ शीर्षक दिया है.
दूसरी घटना को उन्होंने ‘पश्चिम से लौटकर आने के बाद बड़ौदा में रहने की जगह नहीं मिली’ शीर्षक दिया है. उन्होंने लिखा, ‘पश्चिम से मैं 1916 में भारत लौट आया. मुझे बड़ौदा नौकरी करने जाना था. यूरोप और अमरीका में पांच साल के प्रवास ने मेरे भीतर से ये भाव मिटा दिया कि मैं अछूत हूं और यह कि भारत में अछूत कहीं भी जाता है तो वो खुद अपने और दूसरों के लिए समस्या होता है. जब मैं स्टेशन से बाहर आया तो मेरे दिमाग में अब एक ही सवाल हावी था कि मैं कहां जाऊं, मुझे कौन रखेगा. मैं बहुत गहराई तक परेशान था. हिंदू होटल जिन्हें विशिष्ट कहा जाता था, को मैं पहले से ही जानता था. वे मुझे नहीं रखेंगे. वहां रहने का एकमात्र तरीका था कि मैं झूठ बोलूं. लेकिन मैं इसके लिए तैयार नहीं था.’ फिर उन्हें किन-किन अपमानों का सामना करना पड़ा और कैसे उनकी जान जाते-जाते बची इसका विस्तार से वर्णन किया है.
तीसरी घटना का वर्णन उन्होंने ‘चालिसगांव में आत्मसम्मान, गंवारपन और गंभीर दुर्घटना’ शीर्षक से किया है. वे लिखते हैं कि ‘यह बात 1929 की है. बंबई सरकार ने दलितों के मुद्दों की जांच के लिए एक कमेटी गठित की. मैं उस कमेटी का एक सदस्य मनोनीत हुआ. इस कमेटी को हर तालुके में जाकर अत्याचार, अन्याय और अपराध की जांच करनी थी. इसलिए कमेटी को बांट दिया गया. मुझे और दूसरे सदस्य को खानदेश के दो जिलों में जाने का कार्यभार मिला.’ इस जांच के सिलसिले में उन्हें हालातों को सामना करना पड़ा और इस इलाके में दलितों की कितनी दयनीय स्थिति थी. इसका विस्तार से वर्णन उन्होंने किया है.
चौथी घटना का वर्णन उन्होंने ‘दौलताबाद के किले में पानी को दूषित करना’ शीर्षक से किया है. वे लिखते हैं कि ‘यह 1934 की बात है, दलित तबके से आने वाले आंदोलन के मेरे कुछ साथियों ने मुझे साथ घूमने चलने को कहा. मैं तैयार हो गया. ये तय हुआ कि हमारी योजना में कम से कम वेरूल की बौद्ध गुफाएं शामिल हों. यह तय किया गया कि पहले मैं नासिक जाऊंगा, वहां पर बाकि लोग मेरे साथ हो लेंगे. वेरूल जाने के बाद हमें औरंगाबाद जाना था. औरंगाबाद हैदराबाद का मुस्लिम राज्य था. यह हैदराबाद के महामहिम निजाम के इलाके में आता था.’
वह लिखते हैं, ‘औरंगाबाद के रास्ते में हमें पहले दौलताबाद नाम के कस्बे से गुजरना था. यह हैदराबाद राज्य का हिस्सा था. दौलताबाद एक ऐतिहासिक स्थान है और एक समय में यह प्रसिद्ध हिंदू राजा रामदेव राय की राजधानी थी. दौलताबाद का किला प्राचीन ऐतिहासिक इमारत है. ऐसे में कोई भी यात्री उसे देखने का मौका नहीं छोड़ता. इसी तरह हमारी पार्टी के लोगों ने भी अपने कार्यक्रम में किले को देखना भी शामिल कर लिया.’ दौलताबाद किले में प्यासे आम्बेडकर और उनके साथियों ने पानी पी लिया. इसका क्या हश्र हुआ और कैसे जान जाने की नौबत आ गई. इस घटना का भी विस्तार से वर्णन किया है.
छठी और सातवीं घटना अन्य दलित स्त्री-पुरुष से जुड़ी हुई है. जिनके शीर्षक इस प्रकाश हैं- ‘डॉक्टर ने समुचित इलाज से मना किया जिससे युवा स्त्री की मौत हो गई’ और ‘गाली-गलौज और धमकियों के बाद युवा क्लर्क को नौकरी छोड़नी पड़ी’.
आम्बेडकर की आत्मकथा अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ाई जाती है. इसके कई हिंदी अनुवाद भी हो चुके हैं. इसमें उन्होंने अपने बचपन से लेकर 1934-35 तक के अपने अपमानों का बयान किया है, जो अपमान उन्हें ‘अछूत’ जाति में पैदा होने के चलते झेलना पड़ा. यह अपमान केवल हिंदू धर्म के अनुयायियों ने नहीं किया, पारसियों और इसाईयों ने भी किया. भारत में मुसलमान, पारसी और क्रिश्चियन भी किस कदर जातिवादी हैं, इसका पता किसी को भी आम्बेडकर की यह आत्मकथा पढ़ कर चल सकता है. प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्यों आम्बेडकर की आत्मकथा उपेक्षा का शिकार रही, अभी भी है, जबकि गांधी की आत्मकथा के करीब हर पढ़ा लिखा भारतीय जानता है?
गांधी की आत्मकथा ‘मेरे सत्य के प्रयोग’ का नाम हर पढ़े-लिखे व्यक्ति की जुबान पर होता है. यह आत्मकथा 1929 में प्रकाशित हुई थी. क्या इसका कारण यह है कि गांधी की आत्मकथा कोई ‘महान’ आत्मकथा है और आम्बेडकर की आत्मकथा उसकी तुलना में दोयम दर्जे की है. मेरे हिसाब से इसका सीधा कारण इस देश का जातीय और वैचारिक पूर्वाग्रह है. जिसके चलते अंग्रेजों के खिलाफ उच्च वर्गों-उच्च जातियों के लिए संघर्ष करने वाले व्यक्ति को राष्ट्रपिता का दर्जा दे दिया जाता है और पूरे भारतीय जन की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाले आम्बेडकर को लंबे समय तक उपेक्षा और अपमान का शिकार रहना पड़ा.
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