आरक्षण कोई भीख नहीं अधिक्कार है हमारा
सन् 1930 , 1931 , 1932 में लंदन की गोलमेज कांफ्रेंस में डाँ. बाबा साहेब आंबेडकर ने अछूतों के हक के लिए ब्रिटिश सरकार के सामने वकालत की।
उन्होंने ने कहा आप लोग 150 साल से भारत में राज कर रहे हैं फिर भी अछूतों पर होने वाले जुल्म मे कोई कमी नहीं ला सके हैं तथा ना ही आपने छुआछूत को खत्म करने में कोई कदम उठाया है।
बाबा साहेब ने ब्रिटिश सरकार के सामने यह स्पष्ट किया कि अछूतों का हिंदुओं से अलग अस्तित्व है।
वे गुलामों जैसा जीवन जीने के लिए मजबूर हैं।
इनको न तो सार्वजनिक कुओं से पानी भरने की इजाजत है न ही पढ़ने लिखने का अधिकार है और न ही संपत्ति रखने का अधिकार है।
अछूत आखिर तरक्की करे तो कैसे करे।
बाबा साहेब ने गोलमेज में भारत के अछूतों की दुर्दशा की बात करते हुए उनकी सामाजिक शैक्षणिक तथा राजनीतिक स्थिति में सुधार के लिए अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग रखी।
पृथक निर्वाचन मे अछूतों को दो मत देना होता जिसमें एक मत अछूत मतदाता केवल अछूत उम्मीदवार को देते और दूसरा मत वे सामान्य उम्मीदवार को देते।
बाबा साहेब ने जो तर्क रखे वो इतने ठोस और अधिकारपूर्ण थे कि ब्रिटिश सरकार को बाबा साहेब के सामने झुकना पड़ा।
1932 मे अछूतों के लिए तत्कालीन योजना की घोषणा करते हुए पृथक निर्वाचन की मांग स्वीकार कर लिया।
बाबा साहेब ने इस अधिकार के संबंध में कहा।
पृथक निर्वाचन के अधिकार की मांग से हम हिंदू धर्म का कोई अहित नहीं करने वाले हैं।
हम तो केवल उन सवर्ण हिंदुओं के ऊपर अपने अपने भाग्य निर्माण की निर्भरता से मुक्ति चाहते हैं।
लेकिन गांधी पृथक निर्वाचन के विरोध में थे।
वे नहीं चाहते थे कि अछूत समाज हिंदुओं से अलग हो वे अछूत समाज को हिंदुओं का एक अभिन्न अंग मानते थे।
बाबा साहेब ने गांधी से प्रश्न पूछा।
अगर अछूत हिंदुओं का अभिन्न अंग है तो फिर उनके साथ जानवरों जैसा सलूक क्यों।
लेकिन गांधी जी ने इसका कोई जवाब नहीं दे पाये।
बाबा साहेब ने गांधी से कहा।
मिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी आप अछूतों की एक बहुत अच्छी नर्स हो सकते हैं परंतु मैं उनकी मां हूं और मां अपने बच्चों का अहित कभी नहीं होने देते है।
फिर भी गांधी ने पृथक निर्वाचन के खिलाफ पूना की जेल में आमरण अनशन पर बैठ गए और यही वह अधिकार था जिससे देश के करोड़ों अछूतों को एक नया जीवन मिलता और वे सदियों से चली आ रही गुलामी से मुक्त हो जाते।
लेकिन गांधी जी ने आमरण अनशन के कारण बाबा साहेब की उम्मीदों पर पानी फिर गया।
लंबे समय तक आमरण अनशन के कारण गांधी की दशा बिगड़ने लगी।
गांधी की और बाबा साहेब के समर्थकों के बीच झड़पों की भी खबर आने लगी थी तथा बाबा साहेब पर दवाव बढ़ने लगा कि वे अपनी पृथक निर्वाचन की मांग वापस ले लें।
किंतु वे अपनी मांग पर कायम रहे।
इन दोनों के बीच सर तेज बहादुर सप्रू बात करके कोई बीच का रास्ता निकालने का प्रयास कर रहे थे।
24 सितंबर 1932 को सर तेज बहादुर सप्रू ने दोनों से मिलकर एक समझौते का फार्मूला तैयार किया।
जिसमें बाबा साहेब को पृथक निर्वाचन की मांग को वापस लेना था और गांधी जी को केंद्रीय और राज्यों की विधान सभाओं एवं स्थानीय संस्थाओं में अछूतों की जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व देने एवं सरकारी नौकरियों में भी प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था कराने का वादा करना था।
इसके अलावा शैक्षणिक संस्थानों में अछूतों को विशेष सुविधाएं देने की बात भी इसमें शामिल थी।
दोनों नेता इस समझौते पर सहमत हो गए।
24 सितंबर 1932 को इस समझौते पर गांधी जी और बाबा साहेब ने तथा इनके समर्थकों ने अपने हस्ताक्षर कर दिए।
इस समझौते को पूना एक्ट कहा गया।
इस समझौते में पृथक निर्वाचन के बदले अछूतों को आरक्षण का प्रावधान जरूर रखा गया जो कि पृथक निर्वाचन के सामने बहुत ही नगन्य था।
लेकिन फिर भी गांधी की जान को बचाने के लिए करोड़ों अछूतों को उनका हक तत्काल दिलाने के पहले लंबे समय तक लटकाना पड़ा।
आंखों में आंसू लिए हुए बाबा साहेब ने पूना एक्ट पर हस्ताक्षर किए।
इस संदर्भ में बाबा साहेब का नाम अमर रहेगा।
क्योंकि उन्होंने गांधी जी को जीवन दान दे दिया।
उसी दिन बाबा साहेब ने पूना एक्ट का धिक्कार दिवस आयोजित किया।
बाबा साहेब ने कहा कि पूना एक्ट पर हस्ताक्षर करके मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती की है।
मैं ऐसा करने को विवश था मैं आपको तत्काल इस ऊंच नीच की दिवार से मुक्त करना चाहता था।
लेकिन गांधी ने पूना एक्ट मे हस्ताक्षर करवाकर समय सीमा बढ़ा दी है।
बाबा साहेब ने अपने जीवन में कभी गांधी को महात्मा नहीं माना।
वे ज्योतिवा फुले जी को सच्चा महात्मा मानते थे।
Artical Writter by
Tark Singh
The Power of Ambedkar
Jai bhim Namo budhhay
ReplyDeleteJay bhim
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