Bhima koregav History - The Power of Ambedkar

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Monday, December 24, 2018

Bhima koregav History


500 महारों ने हराया 28000 पेशवा को ,,जानिए, आखिर क्या है भीमा-कोरेगांव की लड़ाई, जिसके लिए लोग इस कदर जज्बाती होकर हिंसा पर उतर आए हैं
*गुलामी ,, शोषण,, भेदभाव,, अमानवता,, बालात्कारियो का जहा अंत हुआ।*

महाराष्ट्र के पुणे जिले में भीमा कोरेगांव युद्ध की 200वीं सालगिराह के दौरान हुई हिंसा का असर मुंबई समेत महाराष्ट्र के कई शहरों पर पड़ा है. बुधवार को राज्य के कई इलाकों में हिंसक घटनाएं हुई हैं. वैसे तो भीमा-कोरेगांव की लड़ाई 200 साल पहले लड़ी गई थी, लेकिन इसकी सालगिरह पर हो रही हिंसा में महाराष्ट्र जल रहा था और आज भी जल रहा है।

जानिए, आखिर क्या है भीमा-कोरेगांव की लड़ाई, जिसके लिए लोग इस कदर जज्बाती होकर हिंसा पर उतर आए हैं...

क्या है भीमा-कोरेगांव का मामला?


1 जनवरी 1818 को भीमा-कोरेगांव में अंग्रेजों की सेना ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के 28000 सैनिकों को हराया मार गिराया था। ब्रिटिश सेना में अधिकतर महार समुदाय के जवान थे. इतिहासकारों के मुताबिक, उनकी संख्या 500 से ज्यादा थी. इसलिए दलित समुदाय इस युद्ध को ब्रह्माणवादी सत्ता के खिलाफ जंग मानता है. तब से हर साल 1 जनवरी को दलित नेता ब्रिटिश सेना की इस जीत का जश्न मनाते हैं. इतिहासकारों के मुताबिक, 5 नवंबर 1817 को खड़की और यरवदा की हार के बाद पेशवा बाजीराव द्वितीय ने परपे फाटा के नजदीक फुलगांव में डेरा डाला था. उनके साथ उनकी 28,000 से ज्यादा की सेना थी, जिसमें अरब सहित कई जातियों के लोग थे, लेकिन महार समुदाय के सैनिक नहीं थे.

दिसंबर 1817 में पेशवा को सूचना मिली कि ब्रिटिश सेना शिरुर से पुणे पर हमला करने के लिए निकल चुकी है. इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सैनिकों को रोकने का फैसला किया. 800 सैनिकों की ब्रिटिश फौज भीमा नदी के किनारे कोरेगांव पहुंची. इनमें लगभग 500 महार समुदाय के सैनिक थे.


इसलिए मनाया जाता है जश्न


नदी की दूसरी ओर पेशवा की सेना का पड़ाव था. 1 जनवरी 1818 की सुबह पेशवा और ब्रिटिश सैनिकों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें ब्रिटिश सेना को पेशवाओं पर जीत हासिल हुई. इस युद्ध की याद में अंग्रेजों ने 1851 में भीमा-कोरेगांव में एक स्मारक का निर्माण कराया. हार साल 1 जनवरी को इस दिन की याद में दलित समुदाय के लोग एकत्र होते थे.

हालांकि, यह ब्रिटिश द्वारा अपनी शक्ति के प्रतीक के रूप में बनाया गया था, लेकिन अब यह महारों के स्मारक के रूप में जाना जाता है. सोमवार को इसी स्मारक की ओर बढ़ते वक्त दो गुटों में झड़प हो गई जो कि हिंसा का मुख्य कारण बना.

*महारों ने पेशवाओं के खिलाफ क्यों दिया अंग्रेजों का साथ?*


पेशवाओं ने महारों के साथ जिस तरह का बर्ताव किया, इतिहासकार उसके बारे में भी बताते हैं. शहर में घुसते वक्त महारों को अपनी कमर पर झाड़ू बांधकर रखनी होती थी, ताकि उनके कथित अपवित्र पैरों के निशान इस झाड़ू से मिटते चले जाएं. इतना ही नहीं महारों को अपनी गर्दन में एक बर्तन भी लटकाना होता था. इसी बर्तन में थूकते थे. महारों को रास्ते में थूकने की मनाही थी, ताकि जमीन सवर्णों के लिए अपवित्र न हो जाए. क्यूँ हो रहा था ये।। क्यूके
महार समाज के पूर्वज *"शूरवीर गोविंद महार" ने और महार वाडा के गांव वालों ने,,।*
*गद्दारपेशवा ब्राह्मण श्रीधर रायरीकर कुलकर्णी तुळापूरकर तत्कालीन बादशाहऔरंगजेब के सैन्य* से मिलकर छत्रपती शिवाजी महाराज के बेटे छत्रपती संभाजी महाराज को रत्नागिरी से पकडकर लाये थे,,40 दिन "मनुस्मृती" नियम के अनुसार हर दिन तडप तडप के मारते रहे,,41 वे दिन उनके शरीर को काटकर खेत मे नदी मे फेक दिया था। और चेतावणी दि जो भी इसे अन्त्यसंस्कार करेंगा उनका भी यही हाल होगा। फिर भी ऊस डर के खिलाफत मे एक आवाज आई *"शूरवीर गोविंद महार"* और गांव के कुछ लोग मिलकर उन्होने छत्रपती संभाजी महाराज को भडाग्नी दि यांनी अंत्यसंस्कार किया,, लेकीन उसके बाद ऊन महार समाज के शूरवीर गोविंद महार को और ऊन *महार वाडा* के लोगो को औरंगजेब के सैन्य ने मार डाला,, उसके बाद आया गले मे मटका और कमर मे झाडू,,,

इन नियमों के कारण महार जाति के लोग बहुत अपमानित महसूस करते थे. उनका सामाजिक दायरा काफी सीमित था. महारों को ऐसे सार्वजनिक जगहों पर जाने की मनाही थी, जहां सवर्ण जाति के लोग जाया करते थे. वो सार्वजनिक कुएं से पानी भी नहीं ले सकते थे. सवर्ण के सामने उन्हें ऊंची जगहों पर बैठना भी मना था.

नियमों के खिलाफ कई बार उठी आवाज


ये प्राचीन भारत से चले आ रहे वो नियम थे, जिसके खिलाफ समय-समय पर आवाजें उठती रहीं, लेकिन इन दलित विरोधी व्यवस्थाओं को बार-बार स्थापित किया गया. इसी व्यवस्था में रहने वाले महारों के पास सवर्णों से बदला लेने का अच्छा मौका था और इसीलिए महार अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी में शामिल होकर लड़े. एक तरफ वो पेशवा सैनिकों के साथ लड़ रहे थे दूसरी तरफ इस क्रूर व्यवस्था का बदला भी ले रहे थे.

लड़ाई खत्म होने के बाद क्या हुआ?


भीमा-कोरेगांव की जंग खत्म होने के बाद महारों के सामाजिक जीवन में कुछ बदलाव आए. अंग्रेजों ने इनके उत्थान और सामाजिक विकास के लिए कई ऐसे काम किए, जो काबिलेतारीफ हैं. अंग्रेजों ने महार जाति के बच्चों के लिए कई स्कूल खोले. धीरे-धीरे उन नियमों को भी खत्म करने की कोशिश हुई, जिनके बोझ तले इतने साल से महार जाति दबी हुई थी.


1 जानेवारी 2018मे फिर क्यों भड़की हिंसा?


दरअसल, कुछ दलित नेता इस लड़ाई को उस वक्त के स्थापित ऊंची जाति पर अपनी जीत मानते हैं. वे हर साल 1 जनवरी को अपनी जीत का जश्न मनाते हैं. हालांकि, कुछ संगठन इसे ब्रिटिशों की जीत मानते हुए, इसका जश्न मनाने का विरोध करते हैं. जश्न मनाने के विरोध में हिंसा भड़की है.

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