what is life? जीवन क्या है?
भगवान! तथागत बुद्ध के अनुसार जन्म दुख है, मरण दुख है, जीवन दुख है। भगवान, आपके अनुसार जन्म क्या है, मृत्यु क्या है, जीवन क्या है? और उपनिषदों की इस प्रार्थना "मृत्योर्मा अमृतं गमय' का क्या आशय है? यह किस मृत्यु से किस अमृत की ओर जाना है? कृपया समझाएं।चैतन्य कीर्ति! बुद्ध कहते हैं: जन्म दुख है, मरण दुख है, जीवन दुख है। मैं उनसे राजी भी, राजी नहीं भी। एक अर्थ में राजी, एक अर्थ में राजी नहीं। अहंकार का जन्म दुख है, अहंकार का मरण दुख है, अहंकार का जीवन दुख है। इस अर्थ में मैं राजी। लेकिन आत्मा का जीवन आनंद है। आत्मा का जन्म आनंद है, आत्मा की मृत्यु आनंद है।
आत्मा का जन्म आनंद है, क्योंकि आत्मा का जन्म होता ही नहीं, आत्मा जन्म के पहले है। आत्मा का जीवन आनंद है, क्योंकि आत्मा केवल साक्षी है, भोक्ता नहीं। और आत्मा की मृत्यु भी आनंद है, क्योंकि आत्मा की कोई मृत्यु होती ही नहीं, आत्मा अमृत है।
बुद्ध ने अहंकार के आधार पर कहा है कि जीवन दुख है, जन्म दुख है, मरण दुख है।
तुम्हारा जीवन दुख है, मेरा जीवन दुख नहीं है। तुम अगर अहंकार के केंद्र पर जी रहे हो, तो तुम्हारे चारों तरफ नरक पैदा होगा। अहंकार झूठ है, असत्य है, मिथ्या है। उससे बड़ा कोई असत्य नहीं है। और असत्य के आधार पर जो जीवन का भवन खड़ा करेगा वह कागज की नाव में यात्रा करने की कोशिश कर रहा है, कि पत्ते के महल बना रहा है--ताश के पत्तों के घर--जरा सा झोंका हवा का आया कि गए! इसलिए पछतावा होगा, रोना होगा, पीड़ा होगी। जो भी बनाओगे, मिट जाएगा। जो भी जुड़ाओगे, छिन जाएगा। सब जीवन पानी के बबूलों जैसा होगा।
लेकिन कारण जीवन नहीं है, कारण तुम्हारा अहंकार है। इसलिए बुद्ध ने कहा, मैं-भाव छोड़ दो। मैं हूं ही नहीं, शून्य हूं--ऐसा जान लो, तो निर्वाण। जिसे बुद्ध निर्वाण कहते हैं, उसे ही मैं आत्मा कह रहा हूं, उसे ही परम जीवन कह रहा हूं। मैं छूट जाए तो रस ही रस है। रसो वै सः। फिर परमात्मा की रसधार उतरनी शुरू होती है। अहंकार चट्टान की तरह रोक रहा है उसके झरने को फूटने से।
तो चैतन्य कीर्ति, खयाल रखना, बुद्ध से इस अर्थ में तो मैं राजी हूं। अहंकार का जन्म दुख। और अहंकार का ही जन्म होता है, क्योंकि झूठ का ही जन्म होता है। सत्य तो सदा है, उसका कोई जन्म नहीं होता। और झूठ ही मरता है। सत्य कैसे मर सकता है? सत्य तो शाश्वत है। और सत्य का जीवन कैसे दुख हो सकता है? सत्य का जीवन तो आनंद ही होगा। सत्य की आभा आनंद की होगी। सत्य तो आनंद को ही विकीर्णित करता है। सत्य में तो आनंद के फूल पर फूल खिलते चले जाते हैं। सत्य तो मदिरा है मस्ती की। अहंकार तो कांटा है छाती में गड़ा हुआ; घाव करता है, मवाद पैदा करता है, नासूर बनाता है; कीड़े पड़ जाते हैं।
और तुमने पूछा कि "उपनिषदों की इस प्रार्थना--मृत्योर्मा अमृतं गमय--का क्या आशय है?'
उपनिषद की यह प्रार्थना संसार की श्रेष्ठतम प्रार्थना है। इतनी छोटी, इतनी गहरी, इतनी विराट कोई और प्रार्थना नहीं है। इस प्रार्थना में सब आ गया है।
पूरी प्रार्थना है: तमसो मा ज्योतिर्गमय! हे प्रभु, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल।
याद दिला दूं कि अंधकार अर्थात अहंकार। यह बाहर के अंधकार की बात नहीं है। क्योंकि बाहर के अंधकार के लिए प्रभु से क्या प्रार्थना करनी! वह तो बिजली दफ्तर में गए, तो भी काम हल हो जाएगा। घासलेट का तेल काफी है। इसके लिए प्रभु से क्या प्रार्थना करनी! बाहर का अंधकार तो बाहर की रोशनी से मिट जाता है।
लेकिन भीतर एक अंधकार है, वह बाहर की रोशनी से नहीं मिटता। सच तो यह है कि बाहर जितनी रोशनी होती है, उतना ही भीतर का अंधकार स्पष्ट होता है, रोशनी के संदर्भ में और भी उभर कर प्रकट होता है। जैसे रात में तारे दिखाई पड़ने लगते हैं अंधेरे की पृष्ठभूमि में, दिन में खो जाते हैं। ऐसे जितना ही बाहर प्रकाश होता है, जितनी भौतिकता बढ़ती है, उतना ही भीतर का अंधकार स्पष्ट होता है। जितनी बाहर समृद्धि बढ़ती है, उतनी ही भीतर की दरिद्रता पता पड़ती है। जितना बाहर सुख-वैभव के सामान बढ़ते हैं, उतना ही भीतर का दुख सालता है।
इसलिए मैं एक अनूठी बात कहता हूं जो तुमसे कभी नहीं कही गई है। मैं चाहता हूं, पृथ्वी समृद्ध हो, खूब समृद्ध हो। धन ही धन का अंबार लगे। कोई गरीब न हो। क्यों? क्योंकि जितना धन का अंबार लगेगा बाहर, उतना ही तुम्हें भीतर की निर्धनता का बोध होगा। जितने तुम्हारे पास वैभव के साधन होंगे, उतनी ही तुम्हें पीड़ा मालूम होगी कि भीतर तो सब खाली-खाली है, रिक्त-रिक्त।
आज पश्चिम में, जहां बाहर का धन, बाहर का वैभव अपनी अंतिम पराकाष्ठा को छू रहा है, वहां एक ही बात की चर्चा है कि आदमी के भीतर इतनी रिक्तता क्यों है, इतना खालीपन क्यों है? भारत में इसकी कोई बात ही नहीं करता कि आदमी के भीतर रिक्तता क्यों है। भीतर की खाक बात करें, अभी बाहर की रिक्तता तो भरती नहीं! अभी पेट की रिक्तता तो भरती नहीं, आत्मा की रिक्तता की बात भी करें तो किस मुंह से करें! अभी पेट खाली है, रोटी चाहिए। अभी जीसस का वचन कि आदमी केवल रोटी के सहारे नहीं जी सकता, जंचेगा नहीं। सुन भी लोगे तो भी जंचेगा नहीं। अभी तो तुम कहोगे, पहले रोटी तो मिले, फिर सोचेंगे कि रोटी के सहारे जी सकता है या नहीं। यह भी रोटी मिल जाए उसके बाद ही सोचा जा सकता है।
मैं जीसस के वचन में एक वचन और जोड़ देना चाहता हूं। अधूरा है वह वचन। असल में अतीत के सारे वचन एक अर्थों में अधूरे हैं। जीसस कहते हैं: मनुष्य रोटी के सहारे ही नहीं जी सकता। मैं यह भी कहना चाहता हूं कि मनुष्य रोटी के बिना भी नहीं जी सकता। रोटी चाहिए, मगर रोटी पर्याप्त नहीं है। जरूरी है, आवश्यक है--काफी नहीं है। रोटी मिल जाए, पेट भरा हो, तो एक नई भूख का अनुभव होता है--आत्मा की भूख। बाहर प्रकाश हो, तो एक नये अंधकार की प्रतीति होती है--भीतर का अंधकार। उस अंधकार का नाम अहंकार है। उस अहंकार के कारण ही दिखाई नहीं पड़ता कि मैं कौन हूं। यह मैं की गलत धारणा ही हमें दिखाई नहीं देने देती उसको जो हम वस्तुतः हैं।
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